आज मैं आपके लिए लेकर आया हूँ बेहद ही महत्वपूर्ण Kavi Ramdhari Singh Dinkar की 11+ प्रसिद्ध वीर रस की कविताएं।
जी हाँ!! दोस्तों, आज मैं आपके लियें महाकवि रामधारी सिंह दिनकर की सुप्रसिद्ध कृति "कुरुक्षेत्र" से रामधारी सिंह दिनकर की देशभक्ति कविताएं जो उनके द्वारा रचित घनाक्षरी छंदों की एक कड़ी लेकर आया हूँ। जिसमें होंगे 12 घनाक्षरी छंद।
Kavi Ramdhari Singh Dinkar की देशभक्ति कविताएं
भूमिका:-
ये छंद, कुरुक्षेत्र रचना के द्वितिय सर्ग में वर्णित हैं जब महाभारत का युद्ध हो चुका होता हैं और भीष्म पितामह शरशय्या पर लेटे होते हैं तब धर्मराज युधिष्ठिर, भीष्म पितामह से मिलने जाते हैं और उनसे वार्तालाप करते हैं, जो निम्नलिखित छन्दों में वर्णित हैं!
रामधारी सिंह दिनकर की कविता कुरुक्षेत्र के इन छंदो मे महाकवि रामधारी सिंह दिनकर ने युद्ध के बाद हुए नर संहार से चिंतित धर्मराज युधिष्ठिर के मनोभावों का वर्णन किया है!
जिसे आप यँहा पढ़ सकते हैं -
आयी हुईं मृत्यु से कहा अजेय भीष्म ने कि,
"योग नही जाने का अभी हैं इसे जानकर, ।
रुकी रहो पास कहीं" और स्वयं लेट गये,
बाणों का शयन, बाणों का ही उपधान कर।
व्यास कहते हैं, रहें यों ही वे पड़े विमुक्त,
काल के करों से छीन मुष्टि गत प्राण कर।
और,पंथ जोहती विनीत कंही आसपास,
हाथ जोड़ मृत्यु रही खड़ी शास्ति मानकर।।1
श्रृंग चढ़ जीवन के आर पास हेरते से,
योगलीन लेटे थे पितामह गम्भीर से।
देखा धर्मराज ने विभा प्रसन्न फ़ैल रही,
श्वेत शिरोरुह शर ग्रथित शरीर से।
करते प्रणाम, छूते सिर से पवित्र पद,
उँगली को धोते हुए लोचनों के नीर से।
"हाय!पितामह महाभारत विफल हुआ",
चीख़ उठे धर्मराज व्याकुल अधीर से।।2
वीर-गति पाकर सुयोधन चला गया हैं,
छोड़ मेरे सामने अशेष ध्वंस का प्रसार।
छोड़ मेरे हाथ में शरीर निज प्राणहीन,
व्योम में बजाता जय दुदुंभि सा बार बार।
और यह मृतक शरीर जो बचा हैं शेष,
चुप-चुप मानों पूछता हैं मुझसे पुकार-
"विजय का एक उपहार मैं बचा हूँ,बोलो
जीत किसकी हैं और किसकी हुईं हैं हार।।3
हाय!पितामह, हार किसकी हुई हैं यह?
ध्वंस अवशेष पर सिर धुनता हैं कौंन?
कौंन भस्नराशि में विफल सुख ढूंढता हैं?
लपटों से मुकुट क पट बुनता हैं कौंन?
और बैठ मानव की रक्त-सरिता के तीर,
नियति के व्यंग भरे अर्थ गुनता हैं कौंन?
कौंन देखता हैं शवदाह बन्धु-बान्धवों का?
उत्तरा का करूण विलाप सुनता हैं कौंन?।4
जानता कहीं जो परिणाम महाभारत का,
तन-बल छोड़ मैं मनोबल से लड़ता।
तप से, सहिष्णुता से, त्याग से सुयोधन को
जीत, नयी नींव इतिहास की मैं धरता।
और कहीं वज्र गलता न मेरी आह से जो,
मेरे तप से नही सुयोधन सुधरता।
तो भी हाय! यह रक्तपात नही करता मैं,
भाइयों के संग कहीं भीख मांग मरता।।5
किंतु, हाय! जिस दिन बोया गया युद्ध-बीज,
साथ दिया मेरा नही मेरे दिव्यज्ञान ने।
उलट दी मति मेरी भीम की गदा ने और,
पार्थ के शरासन ने, अपनी कृपाण ने।
और जब अर्जुन को मोह हुआ रण-बीच,
बुझती शिखा में दिया घृत भगवान् ने।
सबकी सुबुद्धि पितामह,हाय! मारी गई,
सबको विनष्ट किया एक अभिमान ने।।6
कृष्ण कहते हैं, युद्ध अनघ हैं, किन्तु मेरे,
प्राण जलते हैं पल पल परिताप से।
लगता मुझे हैं क्यों मनुष्य बच पाता नही,
दह्यमान इस पुराचीन अभिशाप से।
और महाभारत की बात क्या? गिराये गये,
जँहा छल छद्म से वरण्य वीर आप से।
अभिमन्यु वध "औ" सुयोधन का वध हाय!
हममे बचा हैं यँहा कौन, किस पाप से।।7
एक ओर सत्यमयी गीता भगवान की हैं,
एक ओर जीवन की विरति प्रबुद्ध हैं।
जानता हूँ, लड़ना पड़ा था हो विवश, किन्तु,
लहू सनी जीत मुझे दिखती अशुद्ध हैं।
द्वंसजन्य सुख याकि सश्रु दुःख शांतिजन्य,
ज्ञात नही,कोंन बात नीति के विरुद्ध हैं।
जानता नही मैं, कुरुक्षेत्र में खिला हैं पुण्य,
या महान पाप यँहा फूटा बन युद्ध हैं।।8
सुलभ हुआ हैं जो किरीट कुरुवंशियों का,
उसमें प्रचण्ड कोई दाहक अनल हैं।
अभिषेक से क्या पाप मन का धुलेगा कभी?
पापियो के हित तीर्थ वारि हलाहल हैं।
विजय कराल नागिनी-सी डसती हैं मुझे,
इससे न जूझने को मेरे पास बल हैं।
ग्रहण करुँ मैं कैसे? बार बार सोंचता हूँ,
राजसुख लोहू-भरी कीच का कमल हैं।।9
बालहीना माता की पुकार कभी आती, और
आता कभी आर्त्तनाद पितृहीन बाल का।
आँख पड़ती हैं जँहा, हाय! वहीं देखता हूँ,
सेंदूर पूछा हुआ सुहागिनी के भाल का।
बाहर से भाग कक्ष में जो छिपता हूँ कभी,
तो भी सुनता हूँ अट्टहास क्रूर काल का।
और सोते जागते मैं चौक उठता हूँ, मानों
शोणित पुकारता हों अर्जुन के लाल का।।10
जिस दिन समर की अग्नि बुझ शान्त हुईं,
एक आग तब से ही जलती हैं मन में।
हाय!पितामह, किसी भांति नही देखता हूँ,
मुँह दिखलाने योग्य निज को भुवन में।
ऐसा लगता हैं लोग देखते घृणा से मुझे,
धिक् सुनता हूँ अपने पे कण कण में।
मानव को देख आँखे आप झुक जाती, मन
चाहता अकेला कहीं भाग जाऊँ वन में।।11
करुँ आत्मघात तो कलंक और घोर होगा,
नगर को छोड़ अतएव, वन जाऊँगा।
पशु-खग भी न देख पाये जँहा, छिप किसी,
कन्दरा में बैठ अश्रु खुल के बहाऊंगा।
जानता हूँ, पाप न धुलेगा वनवास से भी,
छिप तो रहूंगा, दुःख कुछ तो भुलाऊंगा।
व्यंग से बिंधेगा वँहा जर्जर हृदयँ तो नही,
वन में कहीं तो धर्मराज न कहाउंगा।।12
कुरुक्षेत्र (रामधारी सिंह दिनकर )
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इसी रचना (कुरुक्षेत्र ) से ऐसे ही ओर घनाक्षरी छंद जल्द ही आप पढ़ेंगे इसी ब्लॉग पर!
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जय हिन्द🙏🙏