कवि रामधारी सिंह दिनकर की 8 सर्वश्रेष्ठ घनाक्षरी छंद में कविता "प्रतिशोध"
महाकवि रामधारी सिंह दिनकर की वीर रस की कविता आज कौन नहीं पढना चाहता हैं!
रामधारी सिंह दिनकर के छंद, (Ramdhari Singh Dinkar 7+ Poems )
हिंदी साहित्य प्रेमियों के दिलों में इस तरह बस जाते है कि इन छंदो को बार बार गुनगुनाने का मन करता रहता हैं!
कवि रामधारी सिंह दिनकर की हर एक कविता पाठको के दिलों-दिमाग को इस क़द्र प्रभावित करती हैं कि चौबीसों घंटे
दिमाग़ में वे ही चलती रहती हैं!
तो ऐसी ही दिलों दिमाग में हलचल पैदा करने वाली कविताएं पढ़िए इस पोस्ट में.
नोट :-
यह पोस्ट" रामधारी सिंह दिनकर के घनाक्षरी छंद भाग 1" के बाद "रामधारी सिंह दिनकर के घनाक्षरी छंद भाग 2" हैं!
अगर आपने पहले वाली पोस्ट नहीं पढ़ी हैं और पढना चाहते हैं तो यँहा click करें.
भूमिका :-
ये छंद, कवि रामधारी सिंह दिनकर की प्रसिद्ध कृति "कुरुक्षेत्र"के तृतीय खंड से लिए गए हैं!इन छंदो में कवि रामधारी सिंह दिनकर ने सम्पूर्ण मानव जाति के लिए प्रतिशोध या बदला लेने की प्रवृति को जीवन का आवश्यक हिस्सा माना हैं!
तो आप भी पढ़िए उनके ये छंद
जिनकी भुजाओं की शिरायें फड़की ही नही,
जिनके लहू में नही वेग है अनल का।
शिव का पदोदक ही पेय जिनका है रहा,
चक्खा ही जिन्होंने नही स्वाद हलाहल का।
जिनके हृदय में कभी आग सुलगी ही नही,
ठेस लगते ही अहंकार नही छलका।
जिनको सहारा नही भुज के प्रताप का है,
बैठते भरोसा किये वे ही आत्मबल का।
उसकी सहिष्णुता,क्षमा का है महत्व ही क्या,
करना ही आता नही जिसको प्रहार है।
करुणा ,क्षमा को छोड़ और क्या उपाय उसे
ले न सकता जो बैरियों से प्रतिकार है?
सहता प्रहार कोई विवश कदर्य जीव,
जिसकी नसों में नही पौरुष की धार है।
करुणा क्षमा है क्लीब जाति के कलंक घोर,
क्षमता क्षमा की शूर वीरो का श्रंगार है।
प्रतिशोध से ही होती शौर्य शिखाएँ दीप्त,
प्रतिशोध-हीनता नरों में महापाप हैं।
छोड़ प्रतिबेर पीते मूक अपमान वे ही
जिनमे न शूरता का शेष वह्नि ताप हैं।
चोट खा सहिष्णु व रहेगा किस भांति ,तीर
जिसके निषग में,करों में दृढ़ चाप है।
जेता के विभूषण सहिष्णुता क्षमा है पर,
हारी हुई जाति की सहिष्णुता अभिशाप हैं।
सटता कहीं भी एक तृण जो शरीर से तो,
उठता कराल हो फणीश फुफकार हैं।
सुनता गजेंद्र की चिंघार जो वनों में कहीं
भरता गुहा में ही मृगेंद्र हुहुकार है।
शूल चुभते है, "छूते" आग है जलाती ,भू को
लीलने को देखो गर्जमान पारावार है।
जग में प्रदीप्त है इसी का तेज, प्रतिशोध
जड़ चेतनो का जन्मसिद्ध अधिकार है।
सेना साज हीन हैं परस्व हरने की वृत्ति,
लोभ की लड़ाई शास्त्र धर्म के विरुद्ध है।
वासना विषय से नही पुण्य उद्भूत होता,
वाणिज के हाथ की कृपाण ही अशुद्ध है।
चोट खा परन्तु जब सिंह उठता है जाग,
उठता कराल प्रतिशोध हो,प्रबुद्ध है।
पुण्य खिलता हैं चंद्रहास की विभा में तब
पौरुष की जागृति कहाती धर्मयुद्ध है।
धर्म है हुताशन का धधक उठे तुरन्त,
कोई क्यों प्रचण्ड वेग वायु को बुलाता है।
फूटेंगे कराल ज्वालामुखियों के कंठ,ध्रुव
आनन पे बैठ विश्व धूम क्यों मचाता है?
फूंक से जलायेगी अवश्य जगति को ब्याल,
कोई क्यों खरोंच मार उसको जगाता है?
विद्युत खगोल से अवश्य ही गिरेगी,कोई
दीप्त अभिमान पे क्यों ठोकर लगाता है?
युद्ध को बुलाता है अनीति ध्वज धारी या कि
वह जी अनीति भाल पे दें पांव चलता?
वह जो दबा है शोषणों के भीम शैल से या
वह जो खड़ा है मग्न हँसता मचलता?
वह जो बनाके शांति व्यूह सुख लुटता या,
वह जो अशांत हो क्षुदानल में जलता?
कौन है बुलाता युद्ध?जाल जो बनाता ?या
जो जाल तोड़ने को क्रुद्ध काल सा निकलता?
पातकी न होता है प्रबुद्ध दलितों का खड्ग,
पातकी बताना उसे दर्शन की भ्रांति हैं।
शोषणों की श्रृंखला के हेतु बनती जो शांति,
युद्ध हैं, यथार्थ में वो भीषण अशान्ति है।
सहना उसे हो मोन, हार मनुजत्व की है
ईश की अवज्ञा घोर, पौरुष की श्रान्ति है।
पातक मनुष्य का है,मरण मनुष्यता का,
ऐसी श्रृंखला में धर्म विप्लव है क्रांति है।
( कुरुक्षेत्र से )
Must Read: