मुझे लगता हैं कि रामायण के सबसे रोचक और साहसी चरित्र अंगद के बारे में बहुत ही कम लिखा गया हैं| अंगद जैसे साहसी चरित्र ने मुझे बहुत प्रभावित किया हैं इसलिए मैनें अंगद से जुड़ी रामायण की एक घटना पर वीर रस की कविता (Veer Ras Poems On Angad in hindi) लिखने का प्रयास किया हैं जिसके केंद्र में या कहे नायक बाली पुत्र अंगद को रखा हैं कविता का शीर्षक हैं "शांतिदूत अंगद" ।
भूमिका
कविता की भूमिका बस इतनी हैं कि राम और रावण के बीच युद्ध होने को होता हैं लेकिन मर्यादा पुरषोत्तम भगवान श्री राम रावण को एक अंतिम अवसर ओर देना चाहते हैं जिससे युद्ध की विभीषिका से लंका और लंकावासियों को बचाया जा सके | कविता की शुरुआत भी यहीं से होती हैं जहां राम के खेमे में शान्ति वार्ता को लेकर विचार विमर्श किया जा रहा हैं| पढ़े कविता-
अंगद पर कविता
घोर विध्वंस व नृशंस रोकने के हेतु,
रामादल सामने प्रस्ताव ये प्रस्तुत हैं।
राम कहते है वीर धीर बुद्धि में प्रवीर
वाकपटु महावीर, सा कोई सपूत है?
सपूत है जो दूत का निभाये अद्भुत धर्म,
धर्म ऐसा शत्रु को करें जो अभिभूत है।
भेज शान्तिदूत ये सबूत दुनिया को देंगे
हम विश्वशांति के सदा ही अग्रदूत है।
शान्तिदूत जैसे ही सौमित्र को सुनाई दिया,
फड़की भुजाओं का ये क्रोध महाचंड है।
शब्द शर से किया प्रहार बार बार कहा,
है कँहा कोदंड, सुप्त क्या ये भुजदंड है?
जघन्य अपराधी ,और कामी, क्रूर, दशशीश
आपसे पायेगा क्षमा, कैसा मापदण्ड है?
मेरी माता जानकी का जिसने किया हरण,
उसके लिए प्रचण्ड चन्ड मृत्यु दंड है।
राम समझाते हुए कहने लगे सौमित्र ,
क्रोध ये तुम्हारा लगता यहां पे व्यर्थ है।
है वही कोदण्ड,भुजदण्ड,सैकड़ो है शर,
लंक विध्वंस हेतु एक ही समर्थ है।
समर्थ है सहस्त्र वीर , निज बाहुबल से जो,
एक घात में ही पंहुचा दे लंक गर्त है।
किन्तु निजी शत्रुता हमारी दशानन से है
दण्ड लंक के निवासी को देना अनर्थ है।
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कहते हुए ये राघवेंद्र पूछने लगे कि,
बोलियेगा कौन बुद्धि बल में प्रवीर है?
प्रवीर महावीर वीर धीर कौन होगा जिसे,
देखने को नैंन मेरे कब से अधीर है।
महावीर महावीर कहने लगे सभी कि,
महावीर के समान कौन महावीर है?
राम ने कहा कि भेज देंगे महावीर यदि,
शत्रु सोचेगा कि सिर्फ एक यही वीर है।
सो भेजना है दूत ऐसा अद्भुत शूरवीर
चूर चूर कर सके शत्रु के जो मद को।
इतना वो कद भीमकाय स्वामी का करे कि,
बौना नापने लगे शत्रु भी निज कद को।
ख़ौफ़ शत्रुपक्ष के समक्ष निज पक्ष का कि,
काँपने लगा दे थर्र थर्र संसद को।
शीघ्र सुग्रीव ने कहा कि राघवेंद्र भेजो,
बाली,बलशाली के तनय अंगद को।
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रामदूत बनके चले है अंगद जैसे,
अंधकार को मिटाने सूर्य का उदय है।
शत्रुदल के घेरे में लगते यूँ बालिसुत,
गीदड़ों के झुंड बीच सिंह निर्भय है।
तारा सुत की बलिष्ठ हष्ट पुष्ट देह देख,
सैनिको में ख़ौफ़,नागरिको में विस्मय है।
एक कपि कनक नगर को जला गया था,
आज जाने होगा क्या सभी को यही भय है।
लंकापति ने सुना कि राम ने पठाया दूत
अट्टहास करने लगा वो जोर शोर से।
बाहुबल पे घमण्ड अपने किया प्रचंड ,
भुजदंड को मसलता वो जोर जोर से।
उसको सुनाई दिया नाद लंकेश वाला,
नभ थल दिग व दिगन्त चहुँओर से।
सोचने लगा कि युद्ध कैसे ठान लिया मेने
बुद्धि बल हीन उस राम कमजोर से।
इतने में बाली सुत ने किया प्रवेश; वँहा,
देख दंग हुए सभी तेज युवराज का।
विंशभुज पूछता है कौन हो? कँहा से आये?
राजदूत हूँ मै महाराज श्री राम का।
दूत का न सम्मान न कोई उचित मान,
काज ये विरुद्ध राजनीति के विधान का।
मैं हूँ राजदूत मेरा अपमान किया यानि
अपमान आपने किया है श्री राम का।
किसी राजा का नही, तू दूत वनवासी का है,
कौन राजा कहे उस जंगली फकीर को?
वन में भटकता औ कन्दमूल खाने वाला,
क्या मुकाबला देगा वो मुझ जैसे वीर को।
तेरा उनका मुकाबला नही है कोई सुन,
डुब मर जाना अच्छा तेरे जैसे वीर को।
उनका तो एक दूत लाँघ के समुन्द्र आया,
लांघ भी नही सका तू शर की लकीर को।
दुष्ट खल कामी तुने अपमान किया मेरा,
सोचता हूँ अपने शिविर लौट जाऊँ मैं।
किन्तु प्रभु राम का संदेश इतना विशेष,
था आदेश, तेरा हित तुझे समझाऊँ मैं।
तू मदान्ध है ,न देख पाया हित अहित कभी,
लंकवासियों का हित तुझे बतलाऊँ मैं।
इसीलिए रास्ता यही बचा है पास मेरे,
योग्य निज हेतु आप आसन बनाऊँ मैं।
कहते हुए यों लीन श्री राम में हुए ज्यो,
योगी करता हो कोई तप तन मन से।
श्री राम की कृपा या योगशक्ति का प्रयोग,
आसन का कष्ट हल हो गया जतन से।
देखते ही देखते बड़ी हुईं व मुड़ी पुंछ,
बन गया आसन था भव्य सिंहासन से।
अंग अंग युवराज अंगद का पुलकित,
आसन बना लिया है ऊंचा दशानन से।
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दशग्रीव सुनों, अवधेश का हूँ दूत; मेरे
तात बाली से तुम्हारा मित्रता का नाता है।
मेरे पिता तुल्य किन्तु हो कुबुद्धि के शिकार,
समझाना तुम्हें मेरा फ़र्ज बन जाता है।
इसीलिए कहता हूँ सारे ही कुटुंबी संग,
चलो श्री राम की शरण, दीनदाता है।
एक बार जो भी श्री राम की शरण आये,
इहलोक क्या वो परलोक तार जाता है।
दया सिंधु वो अखिल विश्व अधिनायक है
दया दिखलाते और धारे सन्तोष को।
भक्त चाहे जैसा भी हो हर्ष होता तारने में,
शरणागतों के लिए प्रिय आशुतोष को।
इसीलिए जनक दुलारी को दे सौंप उन्हें,
माँग लेना क्षमा त्याग सारे संकोच को।
तेरे क्षमा कहने से पहले करेंगे क्षमा,
भूल जाएंगे वो तेरे सारे पाप दोष को।
अन्यथा जो क्रुद्ध हो के युद्ध राम ने किया तो,
धँस जाएगी तेरी धरा ये दलदल में।
ऐसी आग बरसेगी राम के कोदण्ड से कि,
उठने लगेगी लपटें भी सिंधु जल में।
ताड़का सुबाहू, और तेरे मामा मारीच को,
पंहुचा दिया था यमलोक कुछ पल में।
तेरा क्या है तू तो यूँही हो जाएगा छिन्न भिन्न,
राम के शरों से होने वाली हलचल में।
जिसकी तू वीरता का करता बखान यँहा,
कैसा वीर? युद्ध से मुकरने लगा है अब।
बड़े बड़े महारथी जीत लिए जिसने वो,
शांति वाली बात कैसे करने लगा है अब?
सच मे ये वीर नही,कायरों की है निशानी,
कायरों के जैसी रट रटने लगा है अब।
मेरा यश,वैभव व रण का कौशल्य देख,
घबरा के तेरा राम डरने लगा है अब।
मैं वही प्रतापी जगश्रेष्ठ असुरीय नेता,
सुर मुनि आदि मेरे गुणगान गाते है।
मेरी भुजाओं का बल देख चुका है कैलाश,
खुद वो कैलाशी शीश अपना नवाते है।
जैसे मतवाले हाथी खोदने चले पहाड़,
बार बार टक्करों से दन्त टूट जाते है।
मेरा वक्ष भेदने को आने वाले अस्त्र शस्त्र,
मेरी छाती से यूँ टकराके टूट जाते है।
मेरी शक्तियों का तुझको नही आभास मूर्ख,
युग एक मेरी छात्रछायाओं में बीता है।
दिग व दिगन्त, दिगपाल जड़ चेतन को,
मैने अपने प्रतापी बाहुओं से जीता है।
क्या है तेरा राम? एक वनवासी ही तो है वो,
न सशस्त्र सेना, राज पाट से भी रीता है।
जाके कहों उससे कि,भीख मांगने से नही,
बाहुओं से जीतने पे मिलती ये सीता है।
दुष्ट, व्यभिचारी, पापी,नाम के प्रतापी; पुण्य,
पुरखो का तुझसे पचाया भी नही गया।
छद्मवेश धर मात सीता को हरा है तूने,
जोर बाहुबल का दिखाया भी नही गया।
निज बाहुबल से ही राम ने वरि है सीता,
तथ्य तुझको क्या ये बताया भी नही गया?
जिसको उठा के एक झटके में तोड़ दिया,
तुझसे धनुष वो हिलाया भी नही गया।
तेरा भला सोच के मैं आया तेरे द्वार किन्तु,
मुझको ही भला बुरा समझा रहा है तू।
तात बाली की जो खुद काँख में रहा छह मास
मुझको भी ऐसी वीरता दिखा रहा है तू।
खुद इस सृष्टि के नियामक रहें हैं उन्हें,
शारीरिक बाहुबल से डरा रहा है तू।
ठुकरा के राम जी का शांति प्रस्ताव मूर्ख,
आप अपने ही काल को बुला रहा है तू।
रामदूत मुख से यूँ व्यंग्य वचनों को सुन,
बोला इनका जवाब देने रण जाएंगे।
किन्तु तेरा मुंड अभी धड़ से उड़ा के हम,
रणचंडी काली माँ को भेंट कर आएंगे।
फिर शुरू होगा रण में प्रचण्ड नाद और,
तुच्छ नर वानरों के काल बन छाएंगे।
मेरे सैन्य वीर मेरा पाते ही आदेश एक,
दोनों भाई संग सारी सेना चबा जाएंगे।
शान्ति दूत अंगद कविता को पीरूलाल कुम्भकार की आवाज में सुने , कविसम्मेलन के मंच से
तेरे सैन्यबल पे क्यों इतना गुमान तुझे,
तेरा ये गुमान पल में उतार जाएंगे।
लाँघ के समुन्द्र जिसके लिये थे आये हम,
भूल जाएंगे उसे या लेके पार जाएंगे।
भू पे पैर को जमा रहा हूँ सुनले ये सभी,
फैसला जो होगा उसको स्वीकार जाएंगे।
असुरो ने रत्ती भर पैर भी हटा दिया तो,
राम की कसम राम सीता हार जाएंगे। ......Continue...
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